Monday, November 18, 2019


नमस्कार,
यह पंक्तियाँ मैंने मेडिटेशन के बाद लिखी थी, जो एहसास था , वह इस प्रकार था---

सूर्य मद्धम-सा निकला है
ब्रह्ममुहूर्त में आकाश-भर बिखरा है
मैं हूँ अभी इसी पल में
जीना चाहती हूँ
पूर्णतः
इन्हीं नम आँखों में
धीरे से उगाना चाहती हूँ
सूर्य मन में
मन तभी ले पाएगा
आनंद
क्षण-क्षण भर में
'साक्षात'
-प्राची अग्रवाल

Wednesday, November 13, 2019

          परतें                                                

पैदा होते ही                               
सुंदर है जहां....                             
उसके बाद तो
इसकी नज़र
उसका नज़रिया
हवा लग गयी....
कि ओढ़ता गया
शॉल....
गर्मी इतनी लगी
कि बीमार पड़ गया
उन शॉल को उतार कर
ठंड लगने का डर था
फिर भी
एक- एक करके
जब हटाईं शॉल
लो
अब बेहतर
लगने लगा                                           
-प्राची 'साक्षात'

Tuesday, November 12, 2019

Shabd

शब्द
चंद शब्द हैं अंदर मेरे
जो भटक रहे हैं इधर-उधर
कच्ची गीली मिट्टी से हैं अंतर
जो ढलेंगे घड़ा बनकर

कुछ सौंधापन तलाश रहा है मन
वो मिठास पानी की तरह
जो ज्वाला में तपकर भी
दे जाए शीतलता
-प्राची  'साक्षात'

साक्षात मैं हूँ

हां, मैं हूँ! मेरे इर्द गिर्द है   सारा जहां सोचा मैंने जो वही पूरा जहाँ मैं हूँ ना देख रहा सबकुछ जब घुल गया सबमें मैं ना रहा समझी ये मैं सब...