Friday, July 1, 2022

साक्षात मैं हूँ

हां, मैं हूँ!

मेरे इर्द गिर्द है  
सारा जहां
सोचा मैंने जो
वही पूरा जहाँ

मैं हूँ ना
देख रहा सबकुछ
जब घुल गया सबमें
मैं ना रहा

समझी ये मैं
सब देख रहे हैं
जाना मैने ये
किसी को फुर्सत ही कहाँ

मैं दौड़ में शामिल क्यों 
चलूँ वहां जो मैं हूँ 
वो नही जो तुम चाहो
वो जिसके लिए ये जीवन बना

तब
मैं हूँ' साक्षात
किसी के लिए
वर्ना
अपने लिए ही अब तक
 पूरा जीवन है जिया



Monday, March 9, 2020

होली

Rangon se bhari ........
Holi ki jhadi.......
Har rang me sarabor ho....
Aapki khushi....
Rang aaj ka nahi....
Roz hi zindagi.......
Vibhinn rango se ho saji....
Mithi gujiya si bhari ho mithaas....
Maano, nahi hogi aapko diabetes......
Hasya ka rang bharo....
Logon se milo julo......
Serious zindagi ko.....
Thoda casual bhi look do....
Har rang aapko bhi suit ho....
Isliye....
Khelo holi......
Chehre aur mann me......
Hamesha rahe muskaan saji..
Hello ji....happy HOLI

-Prachi Agarwal

Sunday, December 15, 2019

Monday, November 18, 2019


नमस्कार,
यह पंक्तियाँ मैंने मेडिटेशन के बाद लिखी थी, जो एहसास था , वह इस प्रकार था---

सूर्य मद्धम-सा निकला है
ब्रह्ममुहूर्त में आकाश-भर बिखरा है
मैं हूँ अभी इसी पल में
जीना चाहती हूँ
पूर्णतः
इन्हीं नम आँखों में
धीरे से उगाना चाहती हूँ
सूर्य मन में
मन तभी ले पाएगा
आनंद
क्षण-क्षण भर में
'साक्षात'
-प्राची अग्रवाल

Wednesday, November 13, 2019

          परतें                                                

पैदा होते ही                               
सुंदर है जहां....                             
उसके बाद तो
इसकी नज़र
उसका नज़रिया
हवा लग गयी....
कि ओढ़ता गया
शॉल....
गर्मी इतनी लगी
कि बीमार पड़ गया
उन शॉल को उतार कर
ठंड लगने का डर था
फिर भी
एक- एक करके
जब हटाईं शॉल
लो
अब बेहतर
लगने लगा                                           
-प्राची 'साक्षात'

Tuesday, November 12, 2019

Shabd

शब्द
चंद शब्द हैं अंदर मेरे
जो भटक रहे हैं इधर-उधर
कच्ची गीली मिट्टी से हैं अंतर
जो ढलेंगे घड़ा बनकर

कुछ सौंधापन तलाश रहा है मन
वो मिठास पानी की तरह
जो ज्वाला में तपकर भी
दे जाए शीतलता
-प्राची  'साक्षात'

Monday, October 14, 2019

दास्तान

दास्तान 
नमस्कार! मेरा नाम प्राची अग्रवाल है और यह कविता मैंने अपने कॉलेज के समय लिखी थी। मेरी पहली कविता, जिसने मुझे आगे लिखने की प्रेरणा दी। यह कविता मैंने  एक छोटी सी बच्ची पर लिखी थी, जो   अपनी जान गवाँ बैठी, जिसे मैंने कभी देखा नहीं था। मैं उस दिन ज़िद कर रही थी जन्मदिन की पार्टी में जाने के लिए , पर वो.......कहीं  चली  गई........  
मेरा दुःख, एक बालिश्त भर भी नहीं
उनका क्या,जो दुनिया मे रहे ही नहीं 
हज़ारों किरणें छूकर, उन नन्हे हाथों को 
एक पल में ले गई, उसकी साँसों को 
छोटी - सी जान थी वो,
दुनिया तो उसने देखी ही नहीं 
मैं रो रही  थी अपनी किस्मत को 
ज़िद कर रही थी महफिल में जाने को 
पर वो ? वो तो, चली गई,
उस देश में, जिसका अर्थ वो समझती ही नहीं 
" कितनी शांत, कितनी अन्जान होगी वो 
तरस रही होगी, अपनी माँ के पल्लू से लिपटने को 
आवाज़ भी कोई न लगा पाया होगा उसे,
चली गई होगी पल भर में,  'अम्मा ' कहती हुई वो "
ज़िन्दगी में क्या-क्या पड़ा है, समझने को 
हर एक दुःख उमड़ पड़ा है, गरजने को 
निकल पड़े हैं, आँसू उसके लिए, 
जिसको आज तक मैंने, 
देखा ही नहीं।  

साक्षात मैं हूँ

हां, मैं हूँ! मेरे इर्द गिर्द है   सारा जहां सोचा मैंने जो वही पूरा जहाँ मैं हूँ ना देख रहा सबकुछ जब घुल गया सबमें मैं ना रहा समझी ये मैं सब...